Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


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शाम हो गई थी। इंदु का चित्ता बहुत घबरा रहा था। उसने सोचा, जरा अम्माँ जी के पास चलूँ कि सहसा राजा साहब सामने आकर खड़े हो गए। मुख निष्प्रभ हो रहा था, मानो घर में आग लगी हुई हो। भय-कम्पित स्वर में बोले-इंदु, मिस्टर क्लार्क मिलने आए हैं। अवश्य उसी जमीन के सम्बंध में कुछ बातचीत करेंगे। अब मुझे क्या सलाह देती हो? मैं एक कागज लाने का बहाना करके चला आया हूँ।
यह कहकर उन्होंने बड़े कातर नेत्रों से इंदु की ओर देखा, मानो सारे संसार की विपत्ति उन्हीं के सिर आ पड़ी हो, मानो कोई देहाती किसान पुलिस के पंजे में फँस गया हो। जरा साँस लेकर फिर बोले-अगर मैंने इनसे विरोध किया, तो मुश्किल में फँस जाऊँगा। तुम्हें मालूम नहीं, इन अंगरेज़ हुक्काम के कितने अधिकार होते हैं। यों चाहूँ, तो इसे नौकर रख लूँ, मगर इसकी एक शिकायत में मेरी सारी आबरू खाक में मिल जाएगी। ऊपरवाले हाकिम इसके खिलाफ मेरी एक भी न सुनेंगे। रईसों को इतनी स्वतंत्रता भी नहीं, जो एक साधारण किसान को है। हम सब इनके हाथों के खिलौने हैं; जब चाहें, जमीन पर पटककर चूर-चूर कर दें। मैं इसकी बात दुलख नहीं सकता। मुझ पर दया करो, मुझ पर दया करो!
इंदु ने क्षमा-भाव से देखकर कहा-मुझसे आप क्या करने को कहते हैं?
राजा साहब-यही कि या तो मौन रहकर इस अत्याचार का तमाशा देखो, या मुझे अपने हाथों से थोड़ी-सी संखिया दे दो।
राजा साहब की इस कापुरुषता और विवशता, उनके भय-विकृत मुखमंडल, दयनीय दीनता तथा क्षमा-प्रार्थना पर इंदु करुणार्द्र हो गई-इस करुणा में सहानुभूति न थी, सम्मान न था। यह वह दया थी, जो भिखारी को देखकर किसी उदार प्राणी के हृदय में उत्पन्न होती है। सोचा-हा! इस भय का भी कोई ठिकाना है! बच्चे हौआ से भी इतना न डरते होंगे। मान लिया, क्लार्क नाराज ही हो गया, तो क्या करेगा? पद से वंचित नहीं कर सकता, यह उसके सामर्थ्य के बाहर है; रियासत जब्त नहीं कर सकता, हाहाकार मच जाएगा। अधिक-से-अधिक इतना कर सकता है कि अफसरों को शिकायत लिख भेजे। पर इस समय इनसे तर्क करना व्यर्थ है। इनके होश-हवास ठिकाने नहीं हैं। बोली-अगर आप समझते हैं कि क्लार्क की अप्रसन्नता आपके लिए दुस्सह है, तो जिस बात से वह प्रसन्न हो, वही कीजिए। मैं वादा करती हूँ कि आपके बीच में मुँह न खोलूँगी। जाइए, साहब को देर हो रही होगी, कहीं इसी बात पर न नाराज हो जाएँ!
राजा साहब इस व्यंग्य से दिल में ऐंठकर रह गए। नन्हा-सा मुँह निकल आया। चुपके से उठे और चले गए, वैसे ही, जैसे गरज का बावला आसामी महाजन के इनकार से निराश होकर उठे। इंदु के आश्वासन से उन्हें संतोष न हुआ। सोचने लगे-मैं इसकी नजरों में गिर गया। बदनामी से इतना डरता था, पर घर ही में मुँह दिखाने लायक न रहा।
राजा साहब के जाते ही इंदु ने एक लम्बी साँस ली और फर्श पर लेट गई। उसके मुँह से सहसा ये शब्द निकले-इनका हृदय से कैसे सम्मान करूँ? इन्हें अपना उपास्य देव कैसे समझूँ? नहीं जानती, इस अभक्ति के लिए क्या दंड मिलेगा। मैं अपने पति की पूजा करना चाहती हूँ; पर दिल पर मेरा काबू नहीं! भगवन्! तुम मुझे इस कठिन परीक्षा में क्यों डाल रहे हो?

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